हादसे इतने हैं वतन में कि खून से छपकर भी अखबार निकल सकते
आजादी की झलकियों में हिंदुस्तान के प्रत्येक समाज की झलक थी| बस ! वही झलक देश के सबसे विशाल दस्तावेज यानि संविधान में प्रावधानों के रूप में विद्यमान हैं|
यह स्वाभाविक हैं कि मनुष्य जब जन्म लेता हैं तो
उसका सम्बन्ध किसी ना किसी समाज से जरूर होता हैं, जिसमे रहकर वह अपने जीवन के तमाम क्षण
व्यतीत करता हैं |
इस बात का सन्दर्भ बिंदु उस दौर से भी हैं जिस
दौर में हिंदुस्तान का प्रत्येक समाज अपनी आजादी के लिए अंग्रेजी हुकूमत की लाठियों को अपने सर-माथे से
लगा रहा था, अंग्रेजो की भोजन रुपी गोलियां इस हाड-मास मॉस
के पुतले के आस-पास मंडरा रही थी| उस वक्त
अकल्पनीय सोच ने सब कुछ बदल दिया ! देश को आजादी मिली और देश का प्रत्येक समाज
आजादी की शान-ओ शौकत में मशगूल था,भारतवर्ष का हर वर्ग आजादी के तरानों से
गूंजायमान था| इन अद्भूत झलकियों के बीच भारतवर्ष में कूछ ऐसे सामाजिक वर्ग भी थे
जो अन्य वर्गों की दृष्टि में में हीन भावना से देखे जाते थे, वे हर सुविधा से
वंचित थे चाहे वो मूलभूत हो या फिर मौलिक| अपना सामजिक-राजनीतिक-आर्थिक विकास करने
की इनकी सोच ने ना तो जन्म लिया और ना ही इनको कोई प्रबल नेतृत्त्वकर्ता मिला|
लेकिन
हिम्मत ए-मर्द-मदद-ए-खुदा की यह आशावादी पंक्तियाँ फिर से साकारित हुई और
दूरदृष्टि सोच से युक्त मसीहा का इंतजार लम्बे समय तक नही रह सका| महू की महीमा ने
एक ऐसा लाल भेजा जो इन तबकों की सार संभाल कर सके तथा इनकों अपने समस्त अधिकारों
से रूबरू करा सके| डॉ. भीमराव अम्बेडकर ! जी हा यह वही शख्स हैं जिनकी यह कलम
गुणगान कर रही हैं| आधुनिक राजनीति में दलित वर्ग के लिए मसीहा बन कर उभरे|
देश
के संविधान में इनको वो समस्त अधिकार प्रदान कियें जो इनके चहुँमुखी विकास में
सहायक हों| सामाजिक सकारात्मकता का सिद्धांत भारतीय लोकतंत्र की एक अहम मांग के
रूप में उभर रहा हैं जो देश की राजनीति को स्वच्छ कर सके तथा मुल्क उन्नति कि ओर
अग्रसर हो सके|
मैं कल्पना कर रहा था! उस भारतीय समाज कि जिसमे
रहने वाले प्रत्येक वर्ग,समाज का विकास चारों ओर से होना चाहिए लेकिन इसकी जमीनी
हकीकत कुछ ओर ही बयाँ करती हैं| उदास मन बैचेनी तब छा जाती हैं जब देश के पिछड़े,
शोषितों और हर आवाज से वंचितों पर जुल्म ढहाए जाते हैं, इन पर होने वाले अत्याचार
की सीमा सारे भारतीय समाज को आतंकित करती हैं, जिनमे चाहे वह मजदूर वर्ग हो या
कृषक, शिक्षक, वकील, पत्रकार, नोकरशाह| दलित शक्ति पर हो रहे अत्याचारों से
शर्मिंदा यह देश आसूंओं से लबालब हैं | जीवन के हर पहलू का सम्बन्ध सामजिक न्याय
से हैं प्रत्येक व्यक्ति चाहता हैं कि उसे अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए समुचित
अवसर मिले तथा ऐसे ही अवसर अन्य वर्गो को भी मिले तभी जाकर समाज की परिभाषा सही
अर्थों में सफल होगी| आज हमारा मुल्क चहुँओर विकास की ओर अग्रसर हैं लेकिन देश में
निवासित वह जनता जो सत्ता और संसाधनो की पहुँच से दूर है उनका विकास भी देश के
सामने बेनकाब हैं | देश की विविधता में
एकता की अवधारणा व्यवहारिक रूप से तभी सार्थक होगी जब देश में रहने वाले समस्त
नागरिकों के मध्य से असमानता मिटेगी तथा नागरिकों को सरकार की विकास योजनाओं का
समुचित अवसर प्रदान होगा | असमानता के हाशियें पर खड़ा यह देश पूर्व में भी असमानता
के विरूद्ध संघर्ष की लड़ाई लड़ चूका हैं | हमारे देश में असमानता के विरुद्ध संघर्ष
का एक लम्बा सिलसिला रहा हैं ,आधुनिक भारत में राजा राममोहन राय,ज्योतिबा
फुले,रामास्वामी नायकर,दयानन्द सरस्वती आदि अन्य समाज सुधारकों ने जातिगत भेदभाव
और छुआछुत के विरुद्ध लड़ाई लड़कर भेदभाव दूर करने का अविस्मरणीय और ऋणी प्रयास किया
था | देश के संविधान को निर्विरोध लिपिबद्ध करने में अपनी भूमिका निभाने वाले देश
के प्रथम कानून और विधि मंत्री डॉ.बीआर अम्बेडकर ने अपने लफ्जों में कहा था कि “
हिन्दुस्तान का समाज ऐसा होना चाहिए जिसमे रहने वाला हर भारतीय अपने व्यक्तित्व का
विकास निर्बाध रूप से कर सके तथा अपनी आजादी को सुनिश्चित कर सके और
सामाजिक,राजनीति और आर्थिक अधिकारों का हकदारी हों”
बाबा
साहेब की असीम दूरदृष्टि से युक्त सोच ने तो बयान दे दिया लेकिन वक्त के हाशियें
पर खड़ा होकर सिंहावलोकन करे तो बाबा साहेब का यह समाज शर्मिंदगी के आसूं बहा रहा
हैं आज हर ओर से घटित और घटनाएँ जिसमे कभी दलित के घर जलाएं जा रहे हैं तो कभी
इनको सडकों पर दौड़ा-दौड़ाकर पीटा जाता हैं| अपने वैवाहिक सपनों से युक्त होकर जब दलित
युवा विवाह के समय घोड़े पर सवार होता हैं तो उसे अशुभ मानकर मौत के घाट उतार दिया
जाता हैं|
धिक्कार! हैं देश के उन दलालों को जो सामजिक असमानता को अपनी गवाली समझकर
देश के साथ गधारी करे|
“कश्तियाँ सब की किनारे पे पहुँच जाती हैं ,
ना
खुदा जिनका, उनका खुदा होता हैं !”
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-शौकत अली खान, तेजा की बेरी
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