मैत्रीय से लेकर जयललिता(अम्मा) तक नारियों का सफर.....

सन्दर्भ : प्राचीन से लेकर आज तक महिलाओं का सामाजिक,राजनैतिक,आर्थिक,सद्भावना रूपी जीवन और राष्ट्रीय एकीकरण में भूमिका |

    आजाद देश में नारी गुलाम.. ये किसने रीत चलाई हैं?
    क्या तुमने अब भी गद्धारों की चिता नही जलाई हैं?
    भारत की हर एक स्त्री को फिर “मनु” आज बना दो तुम
    सभी स्त्रियों के स्वाभिमान को फिर से आज जगा दो तुम| CONFIDENTIALCONFIDENTIAL
नारी :एक सशक्त परिचय
             कि अगर फिरदोस बररुए जमी अस्त, हमी अस्तों, हमी अस्तों, हमी हस्त : अगर जमीन पर नारी के लिए स्वर्ग हैं तो वो यही हैं! यहीं हैं! यही हैं!  भारतीय संस्कृति का मूलमन्त्र 'अयं निज परोवेति गणना लघु चेतसाम उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम्माना गया है।नर+ई रूपी हिंदी व्याकरण से बने इस छोटे से शब्द की ताकत या तो ईश्वर जानता हैं या फिर एक माँ का बेटा, बड़ा ही अद्भुत वाक्यांश हैं क्योंकि यह जन्म किसी कृत्रिम रूप में नही मिलता हैं और ना ही किसी खैरात में, बस आप इससे समझ गये होंगे| विश्व को जब हम एक परिवार के रूप में मानते हैं तो हम सब इसी एक इकाई के स्तर पर एक समाज का निर्माण कर रहे होते हैं। एक घर का होना पूरे विश्व के लिए लिए महत्त्वपूर्ण है। एक घर का केन्द्रीय बिन्दू मां होती है और घर का सारा पर्यावरणसारे संवेदनसारे सरोकारों की निर्माता होती है मां। आज भारतीय घरों में एकता का जो सूत्र हम देखते हैंउसकी निर्माता मां ही तो है। मतलब स्त्री ही परिवार को एक सूत्र में पिरोने में सक्षम है। नारी ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है । नारी को परिभाषित करने का मतलब हवा को मुठ्ठी में बांधने के समान है । पति के लिए शीलबच्चों के लिए ममताबुजुर्गों के लिए सम्मानसमाज के लिए चरित्र और परिवार के लिए धुरी बनने वाली ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति का नाम ही नारी है । नारी ही ऐसी शक्ति है जो परिवारसमाज और राष्ट्र को एकीकृत करती है । किसी भी महान कार्य की शुरुआत बाहर से थोप कर नहीं होती है । उदाहरणत: अंडे को बाहर से तोड़कर हम चूजे को पैदा नहीं कर सकते हैं क्योंकि ऐसा करने से अंडा टूट जाता है । अंडे से एक नया जीवन तभी शुरू हो सकता है जब वह अन्दर से बाहर की ओर दवाब पड़ने से फूटता है और ऐसा तभी होता है जब चूजा अन्दर से जोर लगाता है । बस इसी तरह किसी भी राष्ट्र का एकीकरणउसकी शांति और अमनसांप्रदायिक सद्भाव का निर्माण कागजों पर लिखकर फिर शासक के द्वारा प्रजा पर थोपकर नहीं किया जा सकता है । इसका निर्माण और विकास तो देश के हर घर के अन्दर से प्रस्फुटित होता है और हम जानते हैं कि घर के अन्दर यह काम सिर्फ और सिर्फ एक नारी से ही शुरू हो सकता है । अपनी कोख से सृष्टि चलाने वाली नारी के बारे में इतिहास के पन्ने टटोले जाएँ तो हम पाएंगे कि युगों-युगों से नारी सांप्रदायिक सौहार्द्र और राष्ट्र-एकीकरण की जननी रही है | महिलाओं को शक्तिशाली बनाना हैं ,जिससे वो अपने जीवन से हर फैसले स्वयं ले और परिवार और समाज में अच्छे से रह सके| समाज में उनके वास्तविक अधिकार को प्राप्त करने के लिए उन्हें सक्षम बनाना ही महिला सशक्तिकरण हैं|
 इतिहास: मैत्रीय और पुष्पा के साथ :-
     वैदिक काल में मैत्रेयी , पुष्पा जैसी विदुषी नारियां अपने ज्ञान के बलबूते पर सद्भाव और वसुधैव कुटुम्बकम की बात करती थी । डॉ. बद्री प्रसाद पंचोली ने अपनी रचना 'ध्रुवश्रीमें ऐतिहासिक पात्र ध्रुवश्री या धूसी का वर्णन करते हुए बताया है कि वह पुरूष वेश में सेना में शामिल हुई और यवन आक्रमणकारी दैमैत्रेय से अपने देश की रक्षा के लिए लड़ी । यही नहीं उसने सम्पूर्ण राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोने का अद्भुत कार्य कर दिखाया। बाद में उसने कलिंग नरेश खारवेल से विवाह किया । इसी तरह भारत की प्रथम मुस्लिम महिला शासिका रजिया सुल्ताना ने अपने स्तर पर अपने साम्राज्य को एकीकृत और अखंड रखने का प्रयास किया था । यहाँ हाड़ी रानी का जिक्र करना भी जरूरी होगा जिसके पति चूंडावत राजा ने युद्ध पर जाते वक्त प्रेम निशानी मांगी तो नव-ब्याहता रानी ने यह सोचकर अपना सर काटकर दे दिया कि कहीं युद्ध में उसके पति का ध्यान उसमें ही ना रहे और अगर ऐसा हुआ तो वे युद्ध में बेहतरीन रणकौशल नहीं दिखा पायेंगे जिसका परिणाम उनकी रियासत की हार हो सकती है और अपनी रियासत की अखण्डता को बरकरार रखने के लिए उसके सर का कोई मोल नहीं है I इसके लिए राजस्थान में उक्ति प्रसिद्ध है- 'चूंडावत मांगी सैनाणीसिर काट दे दियो क्षत्राणी' । राजस्थान में अपने स्वामी उदयसिंह की रक्षार्थ अपने पुत्र  का बलिदान करने वाली पन्नाधाय तथा अजीतसिंह की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने वाली गोरां धाय को भी कौन भुला सकता है? इतिहास के यह तथ्य जरा किताबों के अनछुए पन्नो में टटोलेंगे तो पाएंगे कि ऐसी अनेक नारिया हुई जिन्होंने इतिहास ही नही बल्कि वर्तमान और भविष्य को प्रभावित किया हैं
सिर्फ इतना ही नहीं अगर हम नारी की राष्ट्रीय एकीकरण और सांप्रदायिक सौहार्द्र में भूमिका को विस्तृत रूप से समझना चाहें तो नारी जीवन के विभिन्न पक्षों को देखकर आसानी से समझ सकते हैं ।
सामाजिक सरंचना में महिलाओं की भूमिका:-    
सर्वप्रथम हम अगर सामाजिक सरंचना की बात करें तो पाएंगे कि आमतौर पर आदमी जीविकोपार्जन के लिए घर से सुबह बाहर निकलता है और देर शाम को घर लौटता है और ऐसी स्थिति में औरत ही जो बहिर्मुखी होती हैजिसका सामाजिक सम्पर्क सघन होता है और व्यवहार में कोमलता होती हैसबसे पहले अपने पड़ौसी के साथ चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का होउससे संपर्क बनाती है । परस्पर घरों में आना-जाना शुरू होता है और यह सौहार्द्र फलीभूत होता है । इसे एक गुजरात दंगों पर आधारित फिल्म 'फिराकके उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है जिसमें मुस्लिम महिला की हिन्दू सहेली ही दंगों के दौरान उसकी अंतत: जान बचाती है और उसकी सबसे सच्ची और नजदीकी सहेली सिद्ध होती है । भारत गाँवों का देश है और गाँवों में पड़ौसीपन औरतों के बलबूते पर ही पलता-बढ़ता है । राम के घर की दुर्गाष्टमी की पूड़ियाँ और खीर तथा दिवाली की मिठाई जब बीच की दीवार के पार सलीम के घर जाती है और सलीम के घर से ईद की सिवइयां जब राम के घर में आती हैं तो साम्प्रदायिकता दूर-दूर तक नजर नहीं आती है और ऐसा राम या सलीम के प्रयासों से नहीं बल्कि इनके घरों को चलाने वाली औरतों के परस्पर व्यवहार से ही संभव होता है फिर चाहे उस घर की मालकिन सीता हो या रुखसाना या परमजीत कौर हो या कोई औरक्या फर्क पड़ता है । पास-पड़ौस का यह सद्भाव जब पूरे देश में होता है तो अमन की बयार में देश सदा अखंड रहता है । इतिहास गवाह हैं कि मेरे देश की नारी अपने राष्ट्र की एकता और अखंडता बनाये रखने के लिए अपने को समर्पित कर देती हैं| सलीम और राम का यह उदाहरण आपको इसे समझने में और मदद करेगा| एक बात और हैं, जरा यह बात सर्वविदित हैं कि हमारा राष्ट्र गाँवो में बसता हैं,गाँव की स्त्रियों की सद्भावना भी एक इसी विशेषता के रूप में प्रकट होती हैं इनका साम्प्रदायिक सद्भावना रुपी जीवन किसी अन्य राष्ट्र की स्त्रियों से कई गुना भिन्न हैं|                     नारी का संस्कृतिमय रूप:-
          सांस्कृतिक रूप से नारी की राष्ट्रीय एकीकरण और सांप्रदायिक सद्भाव में भूमिका देखें तो पाएंगे कि औरतें अपने कुनबे और परिवेश में शादी-विवाह की रस्में-रिवाजोंलोकगीतपरम्पराएं अपने मन- मस्तिष्क में बैठा लेती हैं और यही वजह है कि सांस्कृतिक रूप से विभिन्न सम्प्रदायों का मिलाप औरतों की वजह से ही होता है फिर चाहे वो ' बनड़ा ' हो या 'ढोलक ' या 'अरेबिक मेहंदी ' हो या फिर राजस्थानी भाषा का लोक गीत ‘डब-डब भरियाँ बाईसा रा नैण’ के साथ अपने सगे-सम्बन्धियों हो या सहेलियों की विदाई हों हर एक आंगन में गूंजता है , कुछ औरऔर इन सब का फैलाव बिना किसी सम्प्रदायधर्मक्षेत्र का ध्यान रखे बिना न जाने कहाँ से कहाँ तक पहुँच जाता है । अपने जन्म का भार वो ना ही पिता और ना ही माँ पर रखती हैं जब तक वह पिता के आँगन से विदा हो जाये, चंद अल्फाज नारी के मुंह से –
“तेरी ही बगिया में खिली
तितली बन आसमां में उडी हूँ
मेरी उड़ान को तू शर्मिंदा ना कर
ए बाबूल मुझे दहेज देकर विदा ना कर”

 नारी का नैतिकमय रूप:-      
         नैतिक रूप से देखें तो प्रेमप्यारत्यागसमर्पणवफ़ा आदि मूल्य सब नारी अपने अन्दर आत्मसात किए हुए है । बच्चे के बालमन पर दादी-नानी की बोधपरक कहानियों का असर उनके धार्मिक रूप से सहिष्णु होने में प्रकट होता है । मां की लोरियां और स्नेहपूर्ण सीख बच्चे को इतना संस्कारवान बनाती है कि वह सिर्फ इतना सीखता है कि हर किसी के खून का रंग लाल होता है और मेरा देश मेरी माँ की तरह ही है । माँ की सीख जब बच्चे को कुछ यूं समझाए तो बच्चे किस तरह और क्योंकर किसी का खून बहाएंगे –
अशफ़ाक की बकरी
तारों के नीचे से आकर
चर जाती है
हनुमान के खेत की घास
और
इस पार से सुरेश के पाले हुए कबूतर
मंदिर के आँगन से
चुग्गा चुगकर
उड़कर तारों के पार
वुजू वाली जगह से
पी लेते हैं पानी
कितना अच्छा है
लकीरों में फंसे और खून से तर
आदमी की तुलना में
बकरी या कबूतर होना !

  
मां की सीख का असर जीजाबाई के द्वारा शिवाजी में और पुतलीबाई के द्वारा गांधी में कितना आया है , इसे बताने की जरूरत ही नहीं है । इसीलिए तो महिलाओं के लिए कहा गया है –


रिश्ते हैं सभी स्वार्थ केकुछ और क्या कहें
पर उम्र भर रिश्तों को निभाती हैं नारियां
दे-देकर एक-एक बूँद अपने खून की
इंसान के तन मन को इंसान बनाती हैं नारियां

           
हकीकत है कि दुनिया में अगर कोई पुरुष नारी के गुण अपना ले तो वह देवता बन जाता है और अगर गलती से नारी कभी पुरुषों के गुण अपनाए तो वह वेश्या और कुलटा बन जाती है ।यह सिर्फ सिर्फ मानसिकता की वजह से ही हैं कुछ अल्फाज एक नारी कुछ यूँ बयाँ करती हैं –
कुछ माँगा नही, कुछ चाहा नही,
बदला बस खुद को, कि रिश्ता टूट ना जाये कहीं |
आदतों को बदला, चाहतों को बदला,
भले मेरे अरमानों ने अपनी करवट को बदला |
समन्दर की एक बूंद, बन जाऊं भले,
बस समन्दर में, मेरा अस्तित्व तो रहे |
धुल का एक कण भी, मैं बन ना सकी
मेरे त्याग की, ओझल हो गयी छवि ||

इसी वजह से तो बड़े विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि दुनिया में कभी भी कोई भी कोई अनैतिक कार्य औरतों के द्वारा नहीं होता है । इतिहास के समस्त युद्धों और बर्बादियों में पहला और अंतिम हाथ पुरुषों का ही होता है । किसी देश पर हमला करके उसके टुकड़े-टुकड़े करने वाले या फिर धर्म की कट्टर आंधी में खून बहाने वाले पुरुष ही होते हैं । कभी किसी ने नहीं सुना कि फलां-फलां औरत ने चाकू मारा या धार्मिक कट्टरता से मस्जिद, मंदिर या गुरुद्वारे को तोड़ डाला । हम दुनिया में कितने महिला आतंकवादियों से या उनके खतरनाक कामों से वाकिफ हैं । जवाब है किसी से भी नहीं । इसकी यही वजह है कि औरतें सहनशील होती हैं और दया व प्रेम और त्याग की मूरत होती हैं । ईश्वर ने उनका हृदय केवल प्रेम से भरा है और यह तो दुनिया भी जानती हैं कि प्रेम केवल जोड़ना सिखाता हैतोड़ना नहीं । स्त्री को चूंकि आधी दुनिया का दर्जा दिया गया है तो दुनिया में होने वाले हर कर्म में उसकी आधी भागीदारी सुनिश्चित हैमगर सांप्रदायिक तनाव फैलाने में उसकी भागीदारी कतई नहीं है । इसलिए इस मामले में कहा जा सकता है कि महिला साम्प्रदायिक एकता की सबसे बड़ी पैरोकार है।
   शिक्षा जगत में नारी:-
      शैक्षणिक रूप से देखें तो नारी ने शिक्षा प्राप्त कर उसका उपयोग सांप्रदायिक सद्भाव और राष्ट्र निर्माण में ही किया है । एक बच्चे की पहली पाठशाला उसकी मां की गोद होती है और शिक्षित मां अपने बच्चे का कितना विकास कर सकती हैयह सहज ही सोचा जा सकता है । बच्चे गीली मिट्टी की तरह होते हैं । बचपन में इन पर कुछ भी और कैसा भी लिखोसबकुछ छप जाता है । इस गीली मिट्टी के सूखने के बाद यानी बच्चों के बड़ा होने के बाद हम लिखे हुए को मिटा नहीं सकते हैं और एक मां अपने बच्चे के कोमल हृदय पर सदैव अच्छा ही अंकित करती है ।  और बात महिला साक्षरता की करे तो देखेंगे कि अपने मुल्क मे महिला साक्षरता दर 65.46 प्रतिशत हैं ,जरा! गौर करो यदि यह आंकड़ा नब्बे से उपर चला जाए तो क्या होगा? इसका प्रत्युतर स्वयं से मिलेगा | यदि एक नारी शिक्षित हो जाए तो उसका सारा कुनबा शिक्षित हो जाता हैं|

साहित्य जगत में नारी:-
 साहित्य और लेखन में भी नारी का प्रभाव बढ़ा हैं | अपनी लेखनी दूर-सुदूर तक अपने अन्तर्मन और देशमन की आवाज पहुंचाई हैं| जब देश अंग्रेजों की गुलामी की आड़ में गबराए हुए था उस वक्त पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर महिलाओं ने अपने लेखों और कविताओं से लोगो में देशभक्ति का संचार पैदा किया| सरोजनी नायडू,महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता(1956) प्रथम महिला साहित्यकार अमृता प्रीतम, प्रथम ज्ञानपीठ महिला विजेता(1976)आशापूर्णा देवी,इस्मत चुगताई,शिवानी,चन्द्रकान्ता कुर्रतुल हैदर,महाश्वेता देवी,मन्नू भंडारी ,प्रभा खेतान,ममता कालिया,मृणाल पण्डे, चित्रा मृदगल,मेहरुनिषा परवेज, डॉ.सरोजनी प्रीतम अरुधंति राय इत्यादि नामो की एक लम्बी सूचि हैं, जिन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं को ऊँचाइयों तक पहुंचाया| उनका साहित्य आधुनिक जीवन की जटिल परिस्थितियों को अपने में समेटे ,समय के साथ परिवर्तन होते मानवीय संबंधो का जीता-जागता-दस्तावेज हैं|  
आध्यात्मिकता के रूप में नारी का संदेश:-
सिर्फ इतना ही नहीं आध्यात्मिक और भक्ति भाव से ओत-प्रोत नारियों ने इस धरती पर चैन-अमन का जो सन्देश दिया है उसका विश्व सदा ऋणी रहेगा । आधुनिक युग में जहां सांप्रदायिक एकता का सवाल है वहां महिला संतों की भूमिका भी कम नहीं है । जिनके जीवन दर्शन ने भारत को विश्वगुरू कहलाने का हकदार बनाया है । भक्तिकाल में अनेक भक्त कवयित्रियां हुईं जिन्होंने साम्प्रदायिक एकता ही नहींस्त्री-पुरुष के एकीकरण पर भी बल दिया। कन्नड़ कवयित्री नीलम्मा इस विचार को स्थापित करने वाली सशक्त रचनाकार हैं । इसी तरह कबीर से भी पहले कश्मीर की लल्ला ने आडंबरों एवं सम्प्रदायवाद का घोर विरोध किया। लल्लेश्वरी या लल्ला दैद (1320-1392) ने श्रीकांत नाम के ब्राह्मण से अध्यात्म ज्ञान लिया तो सम्प्रदाय के आडम्बरों से परे रहते हुए दरवेश सैय्यद अली हमदानी के साथ अमन - प्रेम की शिक्षा का पाठ लोगों को पढाया । फूलचंद्रा द्वारा लल्लेश्वरी के कुछ वाखों अनुवाद किया गया है जो उनके सांप्रदायिक सौहार्द्र को सिद्ध करता है –


प्रेम की ओखली में हृदय कूटा
प्रकृति पवित्र की पवन से।
जलायी भूनी स्वयं चूसी
शंकर पाया उसी से ।।

थल-थल बसता है शिव ही
भेद न कर क्या हिन्दू-मुसलमां
ज्ञानी है तो स्वयं को जान
वाही है साहिब से पहचान ।।

            
कन्नड़ की एक और कवयित्री बोन्ता देवी ने ब्राह्मण एवं अन्त्य वर्ग में भेद की भावना का जमकर विरोध किया। मानव मात्र में समानता की भावना का प्रसार करने वाली अन्य कवयित्रियों में सहजो बाई का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उन्होंने जाति के कारण किसी को ऊंचा व नीचा मानने वालों को फटकारा-
सीस कान मुख नासिका
ऊंचे-ऊंचे ठांव।
सहजो नीचे कारणे
सब कोई पूजे पांव॥
राजस्थान में ताज नामक एक भक्त कवयित्री होने का उल्लेख मिलता है जिसने मुस्लिम होते हुए भी श्रीकृष्ण की आराधना की। उनकी पंक्तियां हैं-

सुनो दिल जानी मेरे दिल की कहानी
तुम दसत ही बिकानीबदनामी भी सहूंगी मैं
देव पूजा ठानी मैं निमाज हूं भुलानी
तजे कलमा-कुरान तुहाडे गुनन गहूंगी मैं
नंद के कुमार कुरबान तेरी सूरत पै
हौं तो तुरकानी पै हिंदुआनी व्है रहूंगी मैं।

    
इन भक्त कवयित्रियों ने सगुण-निर्गुण तथा शिव कृष्ण-राम के भेद को न मानते हुए आराधना पर बल दिया। मीराएक प्रसिद्ध कृष्ण भक्तएक अत्यंत ऊँचे राजपूत कुल की बेटी और बहू थी मगर इसके बावजूद भी नीची जाति रैदास के सानिध्य में कृष्ण भक्ति में लीन रही । इस प्रकार इन्हें साम्प्रदायिक एकता तथा राष्ट्रीय एकीकरण की मिसाल के तौर पर देखा जाना चाहिए । महाराष्ट्र की बहिना बाई जो एक ब्राह्मिन थीने अपना गुरु एक नीची जाति के संत तुकाराम को बनाया और ऊँच -नीच व सांप्रदायिक भेदभाव को दरकिनार कर दिया 
महिलाओं ने सदा ही यह सिद्ध किया है-
   अश्रुओं को नयन में छिपाती रही
   दर्द पीकर सदा मुस्कुराती रही,
   दुर्गासरस्वती की प्रतिमूर्ति बनकर
   प्रेम सागर धरा पर बरसाती रही ।

 स्वतन्त्रता संग्राम में महिलाओं की भूमिका :-   
          प्रथम स्वंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मी बाईबेगम हजरत महलचाँद बीबी आदि ने देश की अखण्डता की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगा दी । झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम उन माँ में लिए जाता हैं जिसमे राष्ट्र और समाज का अन्तर्सम्बन्ध समझकर युद्ध के मैदान में डटी रही और अंग्रेजों के पसीने छुटवा कर स्वतन्त्रता की उषा को और लाल कर दिया| किसी कविवर अभिषेक मिश्र ने कुछ यूँ बयाँ किया हैं –

    पानी और पसीने में बड़ा अंतर होता हैं,
    पत्थर और नगीने में भी बड़ा अंतर होता हैं|
    मुर्दा घड़ियों की तरह सास लेने वालो
    सास लेने और जीने में बड़ा अंतर होता हैं |
       
           विजय लक्ष्मी पंडितकस्तूरबाएनीबेसेंटसरोजिनी नायडू आदि ने स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर भाग लिया ताकि देश की आजादी सुनिश्चित की जा सके । आजादी के दीवानों का जब भी नाम लिया जाता है तो उन मांओं का नाम भले ही इतिहास की कलम से न लिखा गया हो जिनके बच्चों ने गुमनाम रूप से देश की अखंडता के लिए अपनी जान कुर्बान कर दीमगर इस देश की मिट्टी का हर कण साक्षी है और हर जर्रा सलाम करता है ऐसी मांओं को जिन्होंने अपने बच्चों को सदैव प्रेम और देश के लिए बलिदान हो जाने का पाठ पढ़ाया । आजादी के बाद इंदिराजी का नाम लिया जा सकता है जिन्होंने राष्ट्र की सुरक्षा के मद्देनजर तत्कालीन परिस्थितियों में सख्त निर्णय लेकर बंगलादेश का मुक्ति में महती भूमिका निभायी । एक नारी किस तरह से किसी भी सम्प्रदाय में ढल सकती है इसका सबसे बड़ा उदाहरण सोनिया गांधी का दिया जा सकता है जिन्होंने अपने आप को इस देश की परम्पराओं में ढालने का सफल प्रयास किया है ।
                      धार्मिकन्यायप्रशासन और राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं ने अपना वर्चस्व स्थापित किया है और वे हर जगह अमन-चैन और भाईचारे की मिसाल कायम करती दिखाई देती हैं। जहां तक न्याय का सवाल है तो न्यायालयों में न्याय की देवी के रूप में एक महिला ही तो प्रतिस्थापित हैमतलब सबको समान रूप से न्याय प्रदान करने में एक महिला ही पूर्णतया सक्षम है। वैश्विक लिहाज से बात करें तो आंग सां सू की [ म्यांमार ]वंगारी मथाई [केन्या]डोरिस लेस्सिंग [ ब्रिटेन ]एंजेला मर्केल [ जर्मनी ] हिलेरी क्लिंटन[सयुंक्त राज्य अमेरिका] थेरेसा मे [ ब्रिटेन ]आदि ने अपने-अपने क्षेत्र में अपने देश और मानवता के लिए बेहतरीन काम किया है ।
  
    “आँचल के पलने में पाला,
     सकल विश्व हो आत्म विभोर
     बिहस रहा मातृत्व तुम्हारा, कहकर तुम्हें अनारी हैं
     जग को जीवन देने वाली, मौत भी तुमसे हारी हैं”

नारियों की राजनैतिक स्थिति:-
         प्रत्येक राष्ट्र में महिलाओं का राजनैतिक नेतृत्व होता हैं जिसमे से कुछ महिलाये उस राष्ट्र के लिए वरदान साबित हो जाती हैं ,जिनका होना उस देश की राजनैतिक स्थिरता पर भी निर्भर हो जाता हैं ,म्यांमार की बात करे तो वहा देखेंगे कि आंग सां सू की ने लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए कितने प्रयास किये| राजनीतिक रूप से महिलाओं की अच्छी उपस्थिति का होना राष्ट्रहित में होता है क्योंकि कोई भी महिला राजनीतिक धनबल का प्रयोग नहीं करती और न ही वह माइक फैंकना जानती है । इसीलिए एक शांत और उज्ज्वल राजनीतिक छवि के लिए हर देश में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढाने की बात की जा रही है । स्थिर और स्वच्छ राजनीति से न केवल अंदरूनी तौर पर सांप्रदायिक सद्भाव रहता है बल्कि बाहरी तौर पर राष्ट्र की अखंडता भी सुरक्षित रहती है ।जरा बात तो तमिलनाडू की अम्मा की  भी की  जानी चाहिए क्योंकि इतनी भारी संख्या में तमिलनाडू की जनता का अपने लोकसेवक के प्रति प्यार देखा जाना भारतीय लोकतंत्र में नारियों की बढती नैतिकता और राजनैतिक परिपक्वता की ओर इशारा करता हैं| मैत्रयी से लेकर अम्मा तक नारियों का सफर एक लम्बे दूरगामी नारियों के जीवन का परिणाम हैं|

निष्कर्ष/पुनश्च :-
     कहा जा सकता है कि एक नारी अपने नैतिक मूल्यों और सहिष्णुता के बलबूते पर सदैव ही सांप्रदायिक सद्भाव को बनाकर रखती है । इसके पीछे यह तर्क भी है कि उसे किसी भी सांप्रदायिक दंगों या वैमनस्य और राष्ट्र के विभाजन से कुछ नहीं मिलता है । हर मरने वाला उसका या तो बेटा होता है या भाई या पति या पिता.........हर बार नारी ही हर आक्रमण का पहला शिकार बनती है -शारीरिक और मानसिक रूप से । इसीलिए नारी कभी भी किसी का खून नहीं बहाती है । वह तो अमन-चैन की उपासक है । वैश्विक परिदृश्य में उसका हर कदम इसी शांति की ओर होता है । इसीलिए तो कहा जाता है कि ' यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते , रमयंते तत्र देव ' सच्चे अर्थों में नारी ही सांप्रदायिक सौहार्द्र और राष्ट्रीय एकीकरण की सच्ची हितैषी है । पुरुषार्थ का उद्गम नारी से ही मानते हुए राजस्थानी के कवि गिरधारीसिंह पड़िहार ने लिखा-

रळ आधो आध अंग पूरो,
जद मिनख-लुगाई कुण कम है?
जे नर है नद पुरसारथ रो
तो नारी इण रो उद्गम है..

      
और अंत में कहना चाहूँगा कि नारियां सदा से अमन और प्रेम की उपासक रही हैं। नारियों का साथ इस सृष्टि पर सांप्रदायिक सद्भाव और प्रत्येक राष्ट्र के लिए अखंडता और खुशहाली का पैगाम लेकर आएगा|
 “फलक के चाँद क्या हैं,दिखे न दिखे तुम्हीं नकाब उठादों तो ईद हो जाए|”

  -शौकत अली खान/ अकबर खान
 स्नातक,मानविकी [तीसरा सेमेस्टर]
 (इतिहास,राजनीतिक विज्ञान,भूगोल)  
एस.एस.जैन सुबोध पीजी (स्वायत्तशासी) महाविद्यालय,जयपुर

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