क्या वाकई “राज्यपाल सोने के पिंजड़े में बंद एक चिड़िया के समान हैं?












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               राज्यपाल के सन्दर्भ में उक्त कथन देश की पहली महिला राज्यपाल सरोजनी नायडू का था जिसका कहना अभी-भी सही माना जाए तो कोई संदेह नही हैं लेकिन संवैधानिकता से परे नैतिकता की बात भी कई न कई कही जा सकती हैं| क्या देश की संवैधानिक संस्थाओं का दुरूपयोग करना आम बात हैं ? क्या लोकतंत्र की जड़े कमजोर करना यहीं एक मात्र मकसद रह गया हैं ? जवाब हैं नही ! तो हाल ही में सम्पन्न हुए पांच राज्यों के चुनावों में जो लोकतंत्र का नाटकीय रूप चला निंदनीय हैं, निंदनीय ही नही अपितु एक विचारणीय और बहस योग्य विषय हैं | निसंदेह भारतीय जनता पार्टी ने अपने बहुमत के बल पर उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में सरकार बनाई वह अपने आप में जनता के आपार विश्वास से कम नही हैं| लेकिन जहाँ उनका बहुमत नही था वहां उन्होंने संवैधानिक संस्थाओं का दुरूपयोग करके अपने आप को सिद्ध कर दिया हैं कि उनका मकसद हैं सिर्फ सत्ता हथियाना ही हैं | यह बात तो सत्ता के स्वाद की हैं |
       गोवा और मणिपुर में किसी भी पार्टी को बहुमत नही मिलने पर  भाजपा द्वारा सरकार बनाने पर एक बार फिर राजपाल नाम की संस्था पर प्रश्नचिन्ह लग गया हैं | जिस तरह गोवा और मणिपुर में राज्यपालों ने सविंधान,अपनी शपथ और राष्ट्र के प्रति कर्तव्यनिष्ठ ,व्यक्तिगत नैतिकता और लोक मर्यादा से छल-कपट कर केंद्र सरकार के इशारे पर फैसले किये, इससे भारतीय प्रजातंत्र को ठेस पहुंची हैं| जनता का ,जनता के लिए, जनता द्वारा शासन एक बार गुलाम परम्परा की ओर मूडने जा रहा हैं | आज भारतीय संविधान में इससे सम्बन्धित कानून भरे पड़े हैं लेकिन नैतिकता के प्रश्न इनको नकार देते हैं | सरकारिया आयोग और जस्टिस एम.एम पंछी आयोग ने और बाद में सर्वोच न्यायालय के तमाम फैसलों और अंत में सर्वोच्च न्यायालय की नो सदस्यी संविधान पीठ ने बोम्मई  फैसले में स्पष्ठ रूप से बताया कि चुनाव होने के बाद ऐसी स्थति में राज्यपाल को किस तरह के फैसले लेने होंगे | बेशक ! अतुल्य!  संविधान ने तो राज्यपाल के सन्दर्भ में नैतिकता की बात की थी | लेकिन पिछले दिनों में जिस तरह दोनों राज्यपालों ने जो नाटक दिखाया वो एक विचारणीय उदाहरण हैं - लोकतंत्र की मर्यादाओं का | बोम्मई फैसले में जो उपरोक्त आयोगों की सिफारिशो को ही यथावत् स्वीकार करता हैं, इसमें कहा गया था कि किस क्रम में राज्यपाल राजनैतिक दलों को सरकार बनाने के लिए बुलाएँगे |
 इसके अनुसार सबसे पहले उस दल को या दल समूह को सरकार बनाने के लिए बुलाया जाएगा जिस का स्पष्ठ बहुमत हैं | गर ऐसा नही होता हैं सबसे पहले जो दल सबसे ज्यादा सीटे जीता हैं वह आहूत किया जाएगा | अगर वह मना करता हैं तो उस दल समूह को जो चुनावोंपरांत एक साथ आते हैं उन्हें बुलाएंगे | इसका अर्थ यह हैं कि दोनों राज्यों में पहले उस दल को बुलाया जाना चाहिए था जिसके पास सर्वाधिक विधायक थे यानी कांग्रेस को | लेकिन राज्यपालों ने उसी सर्वोच्च न्यायालय के संविधान पीठ   की अवहेलना की | बुधवार को सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला भी पूरी तरह से अपनी अदालत के विपरीत हैं | इस ताजे फैसले के परिणामस्वरूप देश के संविधान विशेषज्ञ भी आहत हैं कि एक रक्षक कभी अपने से परे नही सोचता | एक ओर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कांग्रेस को कहा कि पहले आपको राज्यपाल से बात करनी थी सीधा कोर्ट आये यह कोई औचित्य नही हैं लेकिन राज्यपाल की भी यह संवैधानिक नैतिकता थी कि वो सभी दलों से विचार विमर्श कर अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचे | लेकिन इस बात में अन्य दलों ने तो एक झुमला ही कह डाला कि “ पहले आओं,पहले पाओ| यह शर्मसार हैं उस लोकतान्त्रिक मर्यादा का जिसका निर्माण ऐसे समय में हुआ जिस समय भारतीय प्रजातंत्र का भविष्य सुनिश्चित करना चुनोति से परिपूर्ण था | यह जनता का निर्णय था न की कोई क्च्छुआ और खरगोश की दोड़ थी कि जो पहले राजभवन पहुचे वो ही सरकार बनाये |

 भारतीय संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए शपथ की एक विशेष व्यवस्था रखी थी जिसके तहत यह दोनों सरंक्षण,अभिरक्षण,परिरक्षण की शपथ लेते हैं अर्थात भारतीय संघीय व्यवस्था में इनकी भूमिका सरंक्षक की तरह हैं| जबकि अन्य(प्रधानमत्री,न्यायाधीश ,मंत्री) निष्ठां की शपथ लेते हैं | जबकि नो सदस्यीय संविधान पीठ की बात न मानना तो शपथ की अवेहलना हैं क्योंकि इसमें संविधान का सरंक्षण नही हो पाया, तो क्यों राज्यपाल केंद्र के एजेंट के रूप में कार्य करते रहते हैं | उनका यह निंदनीय कार्य लोकतंत्र की आधार स्तम्भ का भी इस पर विश्वास डगमगाने लग जाता हैं |
 प्रश्न फिर उठता हैं कि क्या  संविधान निर्मातों ने यह गलत किया हैं कि राज्यपाल केंद्र का खिलौना हैं जिससे की वह जब चाहे उसे नचा सके | लगातार इस दौर में लोकतंत्र की एक ही संस्था का मजाक उड़ाया जा रहा हैं | स्पष्ठ तो यह भी हैं कि राज्यपाल केंद्र की इच्छा अनुसार बना रहता हैं वो भी नही चाहता हैं कि मैं अपने पद से हटाया जाऊ इससे अच्छा कि केंद्र के अधीन ही काम करे | गर वो अपनी स्थिति को संवैधानिक बनाकर काम करे जिसमे केंद्र की अवहेलना हो तो उसका वहां बने रहना मुश्किल लगता | गोवा और मणिपुर में खरीद-फरोख्त का जो मंजर चला वह एक सीधा-सीधा राज्यपाल के संवैधानिक कर्तव्य को प्रश्न चिन्ह करता हैं दूसरा देश की आधुनिक दलीय व्यवस्था पर भी प्रश्न करता हैं |
     निष्कर्षत: राज्यपाल के संविधानिक दायित्वों तथा उसके नैतिक कर्तव्यो को लेकर संविधान विशेषज्ञों के द्वारा एक विस्तृत बहस होनी चाहिए कि इस पद का औचित्य खत्म हो रहा हैं ? क्या यह केंद्र के अधीन एक संस्था बनकर रह गयी हैं ? क्या यह भारतीय संघीय व्यवस्था में केंद्र-राज्य सम्बन्ध की धुरी हैं ? क्या इसका बना रहना भारतीय राष्ट्रीय एकता के लिए जरुरी हैं? संविधान की इस संस्था में क्या बदलाव हो कि जनता का विश्वास बना रहे हैं वरना तो इसका दुरूपयोग केंद्र अपनी मर्जी से करेगा | देश लोकतांत्रिक नजरिये से चलता हैं और चला भी हैं गोवा में कांग्रेस को सबसे ज्यादा विधायक मिले मतलब जनता ने इसको अन्य की अपेक्षा थोड़ा बेहतर समझा लेकिन गोवा में चले संवैधानिक नाटक से प्रजातंत्र शर्मसार हैं |
    
-शौकत अली खान

यूथ लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार 

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