देश परदेस से घर की दिलगी




घर दूर होता जा रहा है
रफ़्तार से देश छूट रहा है।

बनकर परदेसी
यह अर्जी उसे सौंप रहे है
जो घर मे अपनेपन के बूते हमसे दिल लगाते है
माँ से लेकर खेत मे रखवाली करने वाले तक को

लहलहाती फ़सल, सरपट दौड़ती बसे
जो आधे घण्टे के फासले से हॉर्न बजाकर
गांव से शहर जाने वालों को ले जाती है।

बड़े दिल के लोगो को पीछे छूटता देख
आँखे रुन्दन करती हैं हिया भर आता है।

इस जुदाई को आसान करो
ऐ ! गाँव के गिरदार, दर्द के हुक्मरान...

~शौक़त

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