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मैं संविधान हुँ, एक ऐसे राज्य का जिसका विस्तार और आकार प्रकृति की अनुपम बनावट हैं । मेरा निर्माण ऐसे राष्ट्र के रूप में हुआ जहां न्याय की परिकल्पना एक स्वच्छ व बेजोड़ लोकतांत्रिक विधि में निहित हो,आजादी राज्य के हर बाशिंदे के रग में बहती हो। सांस्कृतिक दृष्टि से भारत एक पुरातन देश है, किंतु राजनीतिक दृष्टि से एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत का विकास एक नए सिरे से ब्रिटेन के शासनकाल में, स्वतंत्रता-संग्राम के साहचर्य में और राष्ट्रीय स्वाभिमान के नवोन्मेष के सोपान में हुआ। मुझे उस वक्त रचा जा रहा था जिस वक्त यहा के नागरिक अंग्रेजी हुकूमत के सियासतदानों के कहर से दुख सहन कर रहे थे। कहर की चादर इस तरह लिपटी हुई थी कि हर वर्ग-हर युवा आजादी के लिए मुल्क से विदेशी आकाओं के सामने मजबूती से पेश आ रहा था।खैर...दिन बदले वक्त बदला राते भी बदली आखिरकार वो दिन भी आ गया जब हमने आजाद मुल्क में सांसे ली ...लेकिन आजादी के लिए लड़ रहे दो मजहबी यारो को अंग्रेजी हुकूमत के कहर की कुछ बूंदों ने धर्म के नाम पर बांट दिया ..विस्थापन मंजूर करने पर विवश किया,लाखों लोग मौत के काल मे समा गए ।फिर भी हिंदुस्तान सम्भला ,अब वक्त था समय रहते देश को एकजुट करने का और रहने का। विविधताओं से भरे इस देश को एक रूप में मुक्कमल रखना भी बड़ी चुनौती थी...स्वीकार कर देश को एक रूप में व्यवस्थित किया । सन 1950 तक आते आते हमने अपनी राष्ट्रीय पोथी यानि संविधान को निर्मित किया ...हम भारत के लोग भारत को सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न,समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए एक सहमत हुए जो इस राष्ट्र राज्य को सबसे बड़ी जरूरत थी ..यह आज सच हैं ...कि हमारे दूरदृष्टि संविधानविदों की सोच हमने स्वीकार की ..कायम भी है।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में अपने उद्घाटन भाषण में पं. नेहरू ने 1936 में लखनऊ अधिवेशन में इस विषय को निम्नानुसार उठाया था:-
''मैं इस बात से सहमत हूं कि विश्व की समस्याओं और भारत की समस्याओं का समाधान की कुंजी केवल समाजवाद ही है। हालांकि, समाजवाद आर्थिक विषय से भी कुछ अधिक है, यह जीवन का एक दर्शनशास्त्र है। गरीबी, व्यापक बेरोजगारी, भारत की जनता की कमियों को समाप्त करने के लिए समाजवाद के अलावा कोई अन्य तरीका मुझे दिखाई नहीं पड़ता।''
भारतीय परिदृश्य में महात्मा गांधी ने हर किसी की आंखों के आंसू पोछने का लक्ष्य निर्धारित किया। गांधीजी ने कहा कि स्वतंत्रता तब तक एक मजाक की तरह ही है जब तक लोग भूखे-नंगे हों और बेजुबान की तरह दर्द सह रहे हों। हरिजनों के उत्थान के लिए गांधी जी के संघर्ष को हमेशा ही मानवाधिकारों और सम्मान के लिए उनके संघर्ष के सबसे अधिक गरिमामय पहलू के रूप में मान्यता दी जाएगी।
महात्मा गांधी और पं. जवाहर लाल नेहरू के समाजवादी दृष्टिकोण के अलावा परे संविधान के जनकों ने लोकतंत्र को भारतीय संविधान की आधारभूत विशेषताओं के रूप में देखा। अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की सबसे अच्छी परिभाषा देते हुए इसे ''जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा सरकार'' बताया। इस प्रकार लोकतंत्र मजबूत लोगों के साथ-साथ कमजोर लोगों का वास्तविक सशक्तीकरण है।
यहा के नागरिकों समस्त अधिकार चाहे वह सामाजिक,राजनीतिक या आर्थिक हो बेझिझक प्रदान कर लोकहित का सम्पूर्ण बिरादरी को पैग़ाम दिया है । न्याय को सुदृढ़ बनाने के लिए एक राष्ट्रीय न्यायपालिका की व्यवस्था की जो नागरिकों की स्वतंत्रता ,समता कायम रख सके ...बंधुत्व तो नैतिकता है यह हर भारतीय को स्वीकार करने की सलाह देती हैं ।
यह वही संविधान हैं जिसकी रचना ऐसा संकल्प लेकर हुई कि हम भारत को असीमित ऊंचाइयों तक पहुचेंगे एक नई प्रेरणा लेकर । आज संविधान लागू हुए 65 साल से अधिक हुए हैं लेकिन आज भारत के सामने कई चुनौतियां हैं जो देश के विकास में बाधाए हैं। देश ज्यो-ज्यो आगे बढ़ रहा है त्यों त्यों विदेशी ताकते हम पर नजर गढ़ाए हुए हैं ,हमने सम्पूर्ण विश्व को न्याय सुनाने के अंतराष्ट्रीय न्यायालय के जरिए आवाज क्या ले ली ,ब्रिटेन आंख दिखाने लग गया,अमेरिका को विचार करने पर मजबूर कर दिया ...हमे अभी सुरक्षा परिषद में स्थायी जगह लेनी हैं ,विश्व पटल पर नेतृत्व कर्ता के रूप में पेश आना होगा यह सभी आशाए तभी साकार होगी जब हम अपने संविधान को लोकतंत्र के माध्यम से और सशक्त बनाएंगे । देश के भीतर की बात की जाए तो देखेंगे कि सत्ता को हासिल करने के लिए लोग आज संविधान को ताव तक रख देते हैं और खुद को संविधान से ऊपर का समझने लगे जाते हैं । हमे समावेशी विकास की जरूरत है न कि इन निर्थक बहसों की जो देश के ओझल भविष्य में बाधा पहुंचाए । देश में समाज का एक तबका आज भी ऐसा है, जो गरीबी और सामाजिक परिदृश्य में व्याप्त असमानता के बीच अपने जीवन को जीने को विवश है। देश में वर्तमान समय में पूंजीवादी व्यवस्था और विकासवाद की बात की जाती है। देश में विकास की निरर्थक बाते जो आज अपनी मंजिल तय कर आगे बढ़ने को बेताब दिख रही है, उसमें संविधान में रेखाकिंत समाज, देश और आधुनिक व्यवस्था को चलाने के कुछ मुख्य ध्येय अनजान होते नजर आ रहे हैं सतत पोषणीय विकास को चुनौती देने को तैयार है।
आर्थिक विकास के नजरिए को और मजबूत करना होगा गरीब से अमीर के बीच की दूरी को मिटाकर आर्थिक असमानता को ध्वस्त करना होगा।आज भी गर किसान फंदे पर झूलता है तो वो देश की बदनसीबी होगी क्योंकि जो देश विश्व के विशालतम संविधान को गवाह रखकर आगे बढ़े , कभी भी स्वीकार्य नही हैं ,तथाकथित भीड़ क़ानून को दांव पर रखकर व्यक्ति को मार डाले यह लोकतंत्र की किसी निर्मम हत्या से कम नही है। अभिव्यक्ति की आजदी पर पल भर में बहस छिड़ जाती हैं स्वतः ही निपटारा करने लग जाते हैं ,कौन सही और कौन गलत? अरे व्यवस्था हैं ना स्वतन्त्र न्यायपालिका की । राष्ट्रवाद की परिभाषा सत्ता के गलियारों से आरम्भ होकर मतदाताओं के कानों तक सुनाई देती हैं क्यो ? यह तो हर भारतीय के साथ निर्बाध रूप से विद्यमान है। राष्ट्रभक्ति एक भावना है जो मनुष्य को मनुष्य होने का दावा करती आती रही हैं तो फिर यह थोपी जाने वाली देश भक्ति का तक स्वीकार की जाएगी। बेशक़, हम भारतीय है देश हमारा समाज हैं रहने वाला हर बाशिंदा बन्धुत्व की धारणा रखता हैं । कुपोषण, मलेरिया और अन्य भयावह बीमारियां देश की आजादी के समय भी देश के लोगों को काल के मुख में समेटने को उतारू दिख रही थीं, और आज भी विकराल रूप में मुंह फैलाए नजर आ रही है,रोज नित नई बीमारियों का उत्कर्ष चरम पर हैं लेकिन देश इन रोगों से छुटकारा दिलाने में असमर्थ दिख रहा है स्वास्थ्य व्यवस्था पर सवालिया निशान आये दिनों उठाये ना रहे है ।
संविधान की प्रस्तावना में तथाकथित शक्तिहीन लोगों के लिए न्याय और समानता सुनिश्चित करने की बात की गई है, जो काफी समय से आर्थिक पिछड़ापन अथवा सामाजिक शोषण, छूआछूत और अन्य बुराईयों के कारण पीड़ित रहे हैं और जाति, धर्म, प्रजाति आदि के आधार पर भारतीय समाज पिछड़ गया है। संविधान के निर्माताओं ने लोकसभा और राज्य विधान सभाओं के प्रतिनिधियों के निर्वाचन एक व्यापक वयस्क मताधिकार के लिए संविधान में धारा-326 का उल्लेख किया जो सबसे ऐतिहासिक कदम है। यह सचमुच एक ऐतिहासिक निर्णय था और इसके साथ ही यह कमजोरों का वास्तविक सशक्तीकरण भी था। इस निर्णय के माध्यम से संविधान ने महिलाओं को भी समान लोकतांत्रिक अधिकार प्रदान किए, जबकि उस दौरान पश्चिमी देशों में भी मताधिकार के विषय में समानता मूलक अधिकारों के लिए महिलाएं संघर्ष कर रही थी। इस ऐतिहासिक निर्णय के समय सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह था कि भारत की जनता का लगभग 84 प्रतिशत हिस्सा निरक्षर था, जब वर्ष 1950 में संविधान लागू किया गया था। इनमें से अधिकांश लोग गांवों में रहते थे और वे अब तक वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीय उन्नति के लाभों से वंचित थे।
बहुत कुछ हैं मेरे भारत के लिए मुझमें ,आतुरता का हक तो है लेकिन संविधान की बूंदे कटाक्ष की इजाजत नही देती । हा ! बहस की इजाजत तो देती हैं मुझे और मेरे भारत को ..विकास कायम रहे भारत की रगों में । निदा फाजली कहते है -
कभी किसी को मुक्कमल जहाँ नही मिलता
किसी को जमी तो किसी को आसमां नही मिलता!!
- शौकत अली खान
मैं संविधान हुँ, एक ऐसे राज्य का जिसका विस्तार और आकार प्रकृति की अनुपम बनावट हैं । मेरा निर्माण ऐसे राष्ट्र के रूप में हुआ जहां न्याय की परिकल्पना एक स्वच्छ व बेजोड़ लोकतांत्रिक विधि में निहित हो,आजादी राज्य के हर बाशिंदे के रग में बहती हो। सांस्कृतिक दृष्टि से भारत एक पुरातन देश है, किंतु राजनीतिक दृष्टि से एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत का विकास एक नए सिरे से ब्रिटेन के शासनकाल में, स्वतंत्रता-संग्राम के साहचर्य में और राष्ट्रीय स्वाभिमान के नवोन्मेष के सोपान में हुआ। मुझे उस वक्त रचा जा रहा था जिस वक्त यहा के नागरिक अंग्रेजी हुकूमत के सियासतदानों के कहर से दुख सहन कर रहे थे। कहर की चादर इस तरह लिपटी हुई थी कि हर वर्ग-हर युवा आजादी के लिए मुल्क से विदेशी आकाओं के सामने मजबूती से पेश आ रहा था।खैर...दिन बदले वक्त बदला राते भी बदली आखिरकार वो दिन भी आ गया जब हमने आजाद मुल्क में सांसे ली ...लेकिन आजादी के लिए लड़ रहे दो मजहबी यारो को अंग्रेजी हुकूमत के कहर की कुछ बूंदों ने धर्म के नाम पर बांट दिया ..विस्थापन मंजूर करने पर विवश किया,लाखों लोग मौत के काल मे समा गए ।फिर भी हिंदुस्तान सम्भला ,अब वक्त था समय रहते देश को एकजुट करने का और रहने का। विविधताओं से भरे इस देश को एक रूप में मुक्कमल रखना भी बड़ी चुनौती थी...स्वीकार कर देश को एक रूप में व्यवस्थित किया । सन 1950 तक आते आते हमने अपनी राष्ट्रीय पोथी यानि संविधान को निर्मित किया ...हम भारत के लोग भारत को सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न,समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए एक सहमत हुए जो इस राष्ट्र राज्य को सबसे बड़ी जरूरत थी ..यह आज सच हैं ...कि हमारे दूरदृष्टि संविधानविदों की सोच हमने स्वीकार की ..कायम भी है।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में अपने उद्घाटन भाषण में पं. नेहरू ने 1936 में लखनऊ अधिवेशन में इस विषय को निम्नानुसार उठाया था:-
''मैं इस बात से सहमत हूं कि विश्व की समस्याओं और भारत की समस्याओं का समाधान की कुंजी केवल समाजवाद ही है। हालांकि, समाजवाद आर्थिक विषय से भी कुछ अधिक है, यह जीवन का एक दर्शनशास्त्र है। गरीबी, व्यापक बेरोजगारी, भारत की जनता की कमियों को समाप्त करने के लिए समाजवाद के अलावा कोई अन्य तरीका मुझे दिखाई नहीं पड़ता।''
भारतीय परिदृश्य में महात्मा गांधी ने हर किसी की आंखों के आंसू पोछने का लक्ष्य निर्धारित किया। गांधीजी ने कहा कि स्वतंत्रता तब तक एक मजाक की तरह ही है जब तक लोग भूखे-नंगे हों और बेजुबान की तरह दर्द सह रहे हों। हरिजनों के उत्थान के लिए गांधी जी के संघर्ष को हमेशा ही मानवाधिकारों और सम्मान के लिए उनके संघर्ष के सबसे अधिक गरिमामय पहलू के रूप में मान्यता दी जाएगी।
महात्मा गांधी और पं. जवाहर लाल नेहरू के समाजवादी दृष्टिकोण के अलावा परे संविधान के जनकों ने लोकतंत्र को भारतीय संविधान की आधारभूत विशेषताओं के रूप में देखा। अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की सबसे अच्छी परिभाषा देते हुए इसे ''जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा सरकार'' बताया। इस प्रकार लोकतंत्र मजबूत लोगों के साथ-साथ कमजोर लोगों का वास्तविक सशक्तीकरण है।
यहा के नागरिकों समस्त अधिकार चाहे वह सामाजिक,राजनीतिक या आर्थिक हो बेझिझक प्रदान कर लोकहित का सम्पूर्ण बिरादरी को पैग़ाम दिया है । न्याय को सुदृढ़ बनाने के लिए एक राष्ट्रीय न्यायपालिका की व्यवस्था की जो नागरिकों की स्वतंत्रता ,समता कायम रख सके ...बंधुत्व तो नैतिकता है यह हर भारतीय को स्वीकार करने की सलाह देती हैं ।
यह वही संविधान हैं जिसकी रचना ऐसा संकल्प लेकर हुई कि हम भारत को असीमित ऊंचाइयों तक पहुचेंगे एक नई प्रेरणा लेकर । आज संविधान लागू हुए 65 साल से अधिक हुए हैं लेकिन आज भारत के सामने कई चुनौतियां हैं जो देश के विकास में बाधाए हैं। देश ज्यो-ज्यो आगे बढ़ रहा है त्यों त्यों विदेशी ताकते हम पर नजर गढ़ाए हुए हैं ,हमने सम्पूर्ण विश्व को न्याय सुनाने के अंतराष्ट्रीय न्यायालय के जरिए आवाज क्या ले ली ,ब्रिटेन आंख दिखाने लग गया,अमेरिका को विचार करने पर मजबूर कर दिया ...हमे अभी सुरक्षा परिषद में स्थायी जगह लेनी हैं ,विश्व पटल पर नेतृत्व कर्ता के रूप में पेश आना होगा यह सभी आशाए तभी साकार होगी जब हम अपने संविधान को लोकतंत्र के माध्यम से और सशक्त बनाएंगे । देश के भीतर की बात की जाए तो देखेंगे कि सत्ता को हासिल करने के लिए लोग आज संविधान को ताव तक रख देते हैं और खुद को संविधान से ऊपर का समझने लगे जाते हैं । हमे समावेशी विकास की जरूरत है न कि इन निर्थक बहसों की जो देश के ओझल भविष्य में बाधा पहुंचाए । देश में समाज का एक तबका आज भी ऐसा है, जो गरीबी और सामाजिक परिदृश्य में व्याप्त असमानता के बीच अपने जीवन को जीने को विवश है। देश में वर्तमान समय में पूंजीवादी व्यवस्था और विकासवाद की बात की जाती है। देश में विकास की निरर्थक बाते जो आज अपनी मंजिल तय कर आगे बढ़ने को बेताब दिख रही है, उसमें संविधान में रेखाकिंत समाज, देश और आधुनिक व्यवस्था को चलाने के कुछ मुख्य ध्येय अनजान होते नजर आ रहे हैं सतत पोषणीय विकास को चुनौती देने को तैयार है।
आर्थिक विकास के नजरिए को और मजबूत करना होगा गरीब से अमीर के बीच की दूरी को मिटाकर आर्थिक असमानता को ध्वस्त करना होगा।आज भी गर किसान फंदे पर झूलता है तो वो देश की बदनसीबी होगी क्योंकि जो देश विश्व के विशालतम संविधान को गवाह रखकर आगे बढ़े , कभी भी स्वीकार्य नही हैं ,तथाकथित भीड़ क़ानून को दांव पर रखकर व्यक्ति को मार डाले यह लोकतंत्र की किसी निर्मम हत्या से कम नही है। अभिव्यक्ति की आजदी पर पल भर में बहस छिड़ जाती हैं स्वतः ही निपटारा करने लग जाते हैं ,कौन सही और कौन गलत? अरे व्यवस्था हैं ना स्वतन्त्र न्यायपालिका की । राष्ट्रवाद की परिभाषा सत्ता के गलियारों से आरम्भ होकर मतदाताओं के कानों तक सुनाई देती हैं क्यो ? यह तो हर भारतीय के साथ निर्बाध रूप से विद्यमान है। राष्ट्रभक्ति एक भावना है जो मनुष्य को मनुष्य होने का दावा करती आती रही हैं तो फिर यह थोपी जाने वाली देश भक्ति का तक स्वीकार की जाएगी। बेशक़, हम भारतीय है देश हमारा समाज हैं रहने वाला हर बाशिंदा बन्धुत्व की धारणा रखता हैं । कुपोषण, मलेरिया और अन्य भयावह बीमारियां देश की आजादी के समय भी देश के लोगों को काल के मुख में समेटने को उतारू दिख रही थीं, और आज भी विकराल रूप में मुंह फैलाए नजर आ रही है,रोज नित नई बीमारियों का उत्कर्ष चरम पर हैं लेकिन देश इन रोगों से छुटकारा दिलाने में असमर्थ दिख रहा है स्वास्थ्य व्यवस्था पर सवालिया निशान आये दिनों उठाये ना रहे है ।
संविधान की प्रस्तावना में तथाकथित शक्तिहीन लोगों के लिए न्याय और समानता सुनिश्चित करने की बात की गई है, जो काफी समय से आर्थिक पिछड़ापन अथवा सामाजिक शोषण, छूआछूत और अन्य बुराईयों के कारण पीड़ित रहे हैं और जाति, धर्म, प्रजाति आदि के आधार पर भारतीय समाज पिछड़ गया है। संविधान के निर्माताओं ने लोकसभा और राज्य विधान सभाओं के प्रतिनिधियों के निर्वाचन एक व्यापक वयस्क मताधिकार के लिए संविधान में धारा-326 का उल्लेख किया जो सबसे ऐतिहासिक कदम है। यह सचमुच एक ऐतिहासिक निर्णय था और इसके साथ ही यह कमजोरों का वास्तविक सशक्तीकरण भी था। इस निर्णय के माध्यम से संविधान ने महिलाओं को भी समान लोकतांत्रिक अधिकार प्रदान किए, जबकि उस दौरान पश्चिमी देशों में भी मताधिकार के विषय में समानता मूलक अधिकारों के लिए महिलाएं संघर्ष कर रही थी। इस ऐतिहासिक निर्णय के समय सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह था कि भारत की जनता का लगभग 84 प्रतिशत हिस्सा निरक्षर था, जब वर्ष 1950 में संविधान लागू किया गया था। इनमें से अधिकांश लोग गांवों में रहते थे और वे अब तक वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीय उन्नति के लाभों से वंचित थे।
बहुत कुछ हैं मेरे भारत के लिए मुझमें ,आतुरता का हक तो है लेकिन संविधान की बूंदे कटाक्ष की इजाजत नही देती । हा ! बहस की इजाजत तो देती हैं मुझे और मेरे भारत को ..विकास कायम रहे भारत की रगों में । निदा फाजली कहते है -
कभी किसी को मुक्कमल जहाँ नही मिलता
किसी को जमी तो किसी को आसमां नही मिलता!!
- शौकत अली खान
5 Comments
Good
ReplyDeleteWell done my friend
ReplyDeleteWell done my friend
ReplyDeleteBahut badiya
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