हम घमंड से चूर अपनी संस्कृति पर चाहे जितना भी गर्व कर ले, अपनी भौतिक उपलब्धियों पर चाहे जितना इठला ले आपका और हमारा समाज बर्बरता की और अग्रसर है ,किंतु-परन्तु की इस लोकतांत्रिक बहस के बीच से कभी-कभार उन आवाजों को भी सुन लिया जाए जिनके घर का जीवन गाय के दूध को बेचने से चलता था और वह उनके माँ के समान थी और उन्ही को उसकी हत्या के नाम पर मार दिया जाता है,वे कभी भी माफ़ किये जाने चाहिए मुल्क की न्यायपालिका से या फिर रब की कार्यपालिका से ।
हमनें जब 'विश्व बंधुत्व' लेकर राष्ट्र निर्माण का स्वप्न देखा तब यह नही सोचा था कि हम अत्याचारी संस्कृति में डूब जाएंगे और न ही यह भी नही सोचा था कि हम बरसो के मानवीय जीवन तंत्र को ध्वस्त कर देंगे। लोकतंत्र रूपी मानवीय शरीर का हर एक नागरिक अंग उसे बनाए रखने में अपनी महत्वत्ता रखता है जब उसका विफ़लनामा पेश हो जाए तो लोकतंत्र स्वाभाविक ही परश्नोज्ञ हो जाएगा। हमने संविधान के निर्माण के दौरान जीवन के मौलिक अधिकारों की धारणा कल्प कर अनुच्छेद 21 में ' किसी व्यक्ति को , उसके प्राण व उसके दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नही' प्रतिपादित किया लेकिन भीड़ के वीभत्स-पन ने मौलिक अधिकारों को शर्मिंदा किया है जो निंदनीय है इस लोकतांत्रिक समाज मे भी और 'अहिंसा परमोधर्म' की संस्कृति में भी । यह मौलिक अधिकारों का हनन कदापि स्वीकार-योग्य नही है लेकिन अतीत के कुछ दिन पूर्व के पन्ने भीड़ द्वारा हत्या के मामलों व उसमे वृद्धि के साक्षी है। मौलिक अधिकारों की रक्षा देश के सर्वोच्च कानून के द्वार की जाती है उसमें सुधार की आकांक्षा यह सभ्य समाज व यह गंगा-जमुना तहजीब रखती है। 1978 के मेनका गाँधी बनाम भारत संघ मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट में यह भी कहा था कि ' अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन का अर्थ मात्र एक जीव के अस्तित्व से कहीं अधिक है। मानवीय गरिमा के साथ जीवनयापन करना तथा वे सब पहलू जो जीवन को अर्थपूर्ण,पूर्ण तथा जीने योग्य बनाते है इसमें शामिल है ।
कौन है ? वह भीड़ जो खुद तथाकथित न्यायालय बनाकर कुकर्मी न्याय देती है, शैतान बनकर घूमती है,स्वयम्भू निर्णय देती है?? यह कुकृत्य है । भीड़ कभी भी आरोपी को अपना पक्ष बताने का कालजयी अवसर नही देती,हत्यारे अतार्किक रूप से घटना को अंजाम देते है । ऐसे कृत्य से कानून, विधि की उचित प्रक्रिया व प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन होता है ।
महान विभूति महात्मा गांधी जी ने कहा था कि 'साध्य' की पवित्रता के साथ-साथ 'साधन' की पवित्रता जरूरी है ।
बेशक़ ! भारत अपनी विभिन्नता से लबरेज़ बहुधर्मी, बहुसंस्कृति ,बहुभाषी वाला मुल्क है जिसका अपना लोकतांत्रिक 'विधि का शासन' है, देश के नागरिकों से यह पुरजोर अपेक्षा की जाती है कि विद्यमान विधि का सम्मान करें किसी भी कानून का उल्लंघन न करे । भीड़ द्वारा लोगो का मारा जाना देश की एकता और अखंडता पर प्रत्यक्ष हमला है ,समय रहते इस पर सख्त क़ानून व करवाई की जरूरत है वरन हम इस माहौल में एक बेहतर मानविकी वाले राष्ट्र की कल्पना नही कर सकते ।
अन्तः सोशल मीडिया की अनियंत्रित प्रकृति इस प्रकार की घटनाओं की जिम्मेदार है जिस माध्यम को लेकर हमने अपना सुनहरा सपना देखा था अब वही विकराल रुप लेता नजर आ रहा है। तथाकथित भीड़ सैकड़ो लोगो की उन्मादी भीड़ तैयार कर देते हैं तथा सोशल मीडिया एक मानव की मौत का कारण बन जाता है| वह अराजकता की पराकाष्ठा को जन्म दे देता हैं|
सयोंग वश पिछले एक दशक के दौरान घटित हुए जन-क्रांतियाँ लोकतान्त्रिक बदलावों सुनियोजित दंगा फसादों की वारदातों और हानिकारक घटनाओं ने दोनों परिभाषाओं की पुष्टि हैं| इन्टरनेट और दूरसंसार माध्यमों के जरिये एक दुसरे से अदृश्य तरीके से जुडी लाखों करोडो लोगो की भीड़ की दिशा नकारात्मक भी हो सकती हैं तथा सकारात्मक भी।
सत्ता हासिल करने के लिए जो ये लोग देश में नफरत फैला रहे हैं।विचारों कीजिएगा ... सवाल यह है कि हम कैसे समाज को गढ़ रहे है? एक ऐसा कमज़ोर समाज जो उन्मादी भीड़ की हैवानियत को खामोशी से समर्थन देता है।उन्मादी भीड़ के इस वहशीपन पर यदि हम इसी तरह चुप्पी साधे रखी तो यकीं मानिए अगली पीढ़ी असुरक्षित माहौल में पनाह लेगी हमे कदापि माफ़ नहीं करेगी । इस माहौल में रहकर देश कहाँ पहुँच जाएगा ? ना आपका धर्म बचेगा न हमारा और ना वो धर्म जो हमे मानव होने पर मिला था,ना देश बचेगा।
माननीय न्यायालय व केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार से सब यही है कि मॉब लिंचिंग पर रोक कैसे लगाई जाए? देश में कुछ ताकतें अपने नजरिये से साम्प्रदायिकता का मीठा जहर पिलाने लगी हुई हैं। ऐसी घटनाओं पर सख्ती से कानून लागू करके और गुनाहगारों को सजा देकर लगाम कसी जा सकती है। ऐसे तत्वों आैर संगठनों पर कड़ी नजर रखनी होगी। क्या कानून बनाकर ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता है? यह सवाल आपके लिए छोड़ जा रहा हूँ ...
✍ शौक़त अली खान
सामाजिक व देश के संवेदनशील मुद्दो पर सतत लेखन।
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