एक बार मुझे समझ तो लेते ....


यह विरोध व्यक्ति विशेष से पहले संकीर्णता के भेष में शिक्षा का विरोध है,विरोध हुक्मरानों व सोशल मिडिया के गलियारों में साधारण सा प्रतीत हुआ लेकिन यह विरोध एक गरीब के हिस्से की रोजी का विरोध हैं.कितने क्रूर व शिक्षाखिलाफी होंगे विरोध करने वाले. एक युवा को इस देश का सबसे बड़ा हिस्सेदार व कर्जदार माना जाता हैं लेकिन कर्ज चुकाने से पहले ही ऋण जंजाल में फंसाकर डिगा देना बेहद शर्मनाक व बेईमानी कृत्य होता हैं .

भाषा पर किसी भी मजहब का विशेषाधिकार नही है और न ही किसी के हिस्से की यह व्यक्तिगत जागीर है.भाषा की यह फितरत रही है कि उसे जो भी मीठी मुस्कान से पुकारे उसके पास चली आती है साथ ही घर कर जाती हैं और व्यक्ति उसको अपनी रोजी-रोटी तक बना लेता हैं.

जयपुर के बगरू निवासी डॉ फिरोज खान की हाल ही में बीएचयू में संस्कृत के सहायक प्रोफेसर के रूप में  नियुक्ति होनी थी लेकिन उनके विरोध के चलते लम्बे कसमस के बाद बेरंग जयपुर लौटना पड़ा और उनके हौसले को डिगा दिया. सच में कितनी बदनसीबी हैं कि आदमी अपनी जिन्दगी के सबसे बड़े स्वप्न व ख्वाहिशों के आगे घुटने टेक देता है वो भी व्यवस्थाओं की बंदिशों में.

मजहबी जंजीरे और संकीर्ण मानसिकता की बुनियाद पे नीवं लम्बे अरसे तक नही टिका करती,जब-जब इन्सान इनमें उलझा है उसने दरबदर ठोकरे खाई हैं और तबाही उसके हिस्से में हमेशा से रही हैं. दुःख इस बात का होता हैं करतूत चंद लोगो की होती है शर्मसार सारे शिक्षा जगत को होना पड़ता हैं .


व्यवस्थाओं तुम कितनी भी क्रूर रहो
जिदंगी के सिद्धांत नही बदला करते
ख्वाहिशे कितनी भी लडखडाती रहे
सपने कभी सोया नही करते ...!!
-       शौकत

“ हो सकता है कि मैं बीएचयू के छात्रों के सोचने का तरीका बदल पाऊं. ये नहीं पता कि मैं ये कैसे करूंगा, पर देखते हैं कि आगे क्या होता है. अगर वो मुझे अच्छी तरह जान लें, तो हो सकता है कि वो मुझे पसंद करने लगें.’’
-       डॉ . फिरोज खान

 - शौकत अली खान 

Post a Comment

0 Comments