औघड़ - नीलोत्पल मृणाल (पुस्तक समीक्षा)

साहित्य के लोकतंत्रीकरण का सुबूत है 'औघड़' 


"नई वाली हिंदी के उगते सूरज की तमाम साहित्य वाली किरणे आधुनिक साहित्य को बेबाक़ रोशनी देने का काम करेगी" यह मैं स्वयं लिखता हूँ एक उपन्यास पढ़कर । मैं पिछले दिनों 'औघड़' उपन्यास खरीद कर लाया क्योंकि वो मेरे चेहते लेखक की अनुपम और आकर्षक कृति है और इसलिए पढ़ने के लिए उचित भी समझा।

लेखक "औघड़" में ग्रामीण परिवेश के उन समस्त बिंदुओं को एक-एक कर उपन्यास का हिस्सा बनाता है जहाँ बाकी लेखक इस तरह के कार्य के लिए दूर सुदूर तक नजर नहीं आते ।
उपन्यास की भाषा की बात करे तो प्राथमिक भाषा हिंदी है लेकिन व्यंग्य में क्षेत्रीय भाषा ने उपन्यास को वजन देने का काम किया है । “औघड़" हिंदी का आँचलिक उपन्यास है और इस कारण इसके क़थ्य में प्रायः वे सारी विशेषताएँ मिलती हैं जो किसी भी आँचलिक उपन्यास में पाई जाती हैं। लेखक नीलोत्पल मृणाल अपने उपन्यास को प्रवाहमयी लिखते है जिसमें गांव की भौगोलिक से लेकर राजनीतिक स्थिति प्रमुख है।

 व्यंग्य की बहती धारा देश की सभ्यता और संस्कृति लिए उनके शब्द "अजान की आवाज़ अल्लाह तक जाने से पहले मंदिर के देवी-देवताओं को मिल जाती थी। बैरागी पंडीजी को वर्षों से अज़ान की आवाज़ सुनकर उठने की आदत थी।”
इस देश की बरसों की तहजीब को जिंदा करने की शाब्दिक कोशिश करते है ।

"औघड़" का दूसरा स्वरूप उसका दार्शनिक होना है जिसके अन्तर्गत लेखक पात्रों के माध्यम से सटीक कथ्यों से देश के ग्रामिक जीवन के चरित्र को निरुपित करता है । देश की लोकतांत्रिक राजनीति, इसमें विचारधारा का द्वंद्व चुनाव, सत्ता-संघर्ष, जाति-धर्म, क्षेत्रवादिता का अघोषित ज्ञान लिए औघड़ अपने आप में सम्पूर्ण उपन्यास है ।

भाषा -शैली  को देखकर तो मैं यह सोचता रहा कि हिंदी सिर्फ एक भाषा ही नही बल्कि अपने आप में एक जीवन है जो स्वयं के साथ दूसरों को भी जीता है। "औघड़" व्यंग्य, उक्तियां, प्रतिरूप,शिल्प और प्रतिकात्मकता से परिपूर्ण हिंदी जगत की अनूठी और अभिनव कृति है ।

"औघड़"सामन्तवाद के अंत की कला लिए हुए तथा सशक्त होते लोकतंत्र की जीवनी है। - “सामंती दौर गुज़र जाने के बाद भी भारतीय लोकतंत्र में उस परिवार की अहमियत कभी कम नही होनी थी, जिसके पास लोग भी थे और लाठी भी। यह वह दौर था जब सामन्तवाद का निशाना चूकने लगा था। अब किसी ठाकुर साहब के हाथ से चली लाठी ठीक निशाने पर नही भी लगने लगी थी।"

बरसों हो गए एक बेहतरीन लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करते,और न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था स्थापित करते लेकिन फिर भी आज भी गांवों में छुआछूत का कथित द्वंद्व देखने को मिलता है यह सिर्फ गांव में रहकर ही जिया जा जा सकता है वरन शहर तो स्वयं को लोकतांत्रिक और न्याययोग्य होने का दावा करते है।  लेखक ने इस तरह लिखा जैसे गाँव कोे स्वयं ने जिया हो है। उपन्यास के अनुसार-
“हम लोग तो यदुवंशी हैं, मजाल है कि कोई चमार के हाथ का छुआ खा ले या चाय तक पी ले। चलिए जात-पात नही करना चाहिए लेकिन धर्म भी तो कोई चीज़ है। हम बाहर कभी जात पात नही करते। होटल में खाते हैं, पार्टी में खाते हैं .. ।..करीम मियाँ दर्ज़ी का काम करता है ना बाज़ार में, उसको कल पूछे हम। बोला कि जगदीश भैया पठान हैं हम, चमार के घर पानी भी हराम है हमारे लिए” ।

एक बार तो यह सभी पढ़कर मैं स्बन्ध रह गया फिर भी व्यंग्य और हास्य की अनहोनी ने मुझे ठहरकर सोचने पर मजबूर किया कि सामाजिक छुआ-छूत का अपना एक नजरिया है और उसका ग्रामिक अंचल में बेबाक़ चेहरा है। बरसों पुरातन और सली-गड़ी परम्परा पर आज संविधान और मानवीय सामाजिक रवैया नकारा साबित होता है। खैर ! हम कब तक धर्म,समाज,समुदाय और मानव होने से न्याय कर पाएंगे??

उपन्यास का अपना स्वरूप होता है ख़ासकर वे उपन्यास जो जमीन स्तर पर लिखे गए हो । प्रेमचंद का 'गोदान' अपनी अलग पृष्ठभूमि रखता है वही नीलोत्पल मृणाल का 'औघड़' अलग । अपने बेटे रोहित की आधुनिक जज्बाती विचारधारा पर गणेशी की विचारधारा शून्य हो जाती है- “वो कुदाल की चोट के साथ अब मोटर सायकिल कोड़ के निकाल रहा था।एक ही ज़मीन थी जिसमें वो अब मोटर सायकिल बो चुका था।”

शरीर रूपी इस देश मे किसान रक्त का कार्य करता है जिस तरह खून शरीर के प्रत्येक हिस्से में अपना वजूद लिए हुए है इसी तरह किसान भी देश के हर कोने में है। लेकिन जिसकी दशा और दिशा पर गौर किया जाए तो किसान अब भी अपने हालातों से मजबूर है। मानसून की अनियमितता, अकाल,सरकारी रवैया प्रमुखतः समस्याए है। लेखक 'औघड़' में लिखते है कि- “समय खेत जाते बैल की तरह चला जा रहा था। किसी को धोते हुए तो किसी को जोतते हुए। गाँव में ज़िंदगी एक गाय थी और संघर्ष उसका चारा। इसके अलावा चारा भी क्या था...!! वास्तव में हृदय को सांत्वना देकर लिखा गया एक सर्वकालिक और सर्वमान्य ग्रामिक उपन्यास है क्योंकि वो गांव ही क्या जिसमें लहराती फसल न दिखे और जोते हुए हल। किसान पर लिखना सुकून देता है।

तत्कालीन ग्रामीण समाज की ग़रीबी, जहालत, शोषण, उत्पीड़न, वंचना, भेदभाव, धार्मिक विसंगति, महिलाओं की बदहाली जैसी सच्चाइयां और अंग्रेज़ी शासन के शोषण का असली चेहरा प्रेमचंद ने अपने लेखों और कृतियों में रखा जिसे आज भी पढ़ा जा रहा हैं और अब नीलोत्पल मृणाल जैसे युवा लेखक इस लेखन की परंपरा को बखूबी निर्वहन कर रहे है।

जिस किसी भी लेखक ने अपनी सभ्यता,हालातों और संस्कृति तथा अस्तित्व को अपनी कृतियों का अभिन्न हिस्सा रखा है वे सभी समकालीन लेखक खूब पढ़े गए है और पढ़े भी जा रहे है।  काव्य की बदलती परम्पराओं और भाषायी सौंदर्य के साथ अपने देह को सान्त्वना देने वाले आज के लेखक सिर्फ स्वयं एंव मनोरंजन के लिए लिखते है न कि अपनी परम्परा और वर्तमान के हालातों पे, ना ही बुझी हुई विरासत पे और ना ही खोई हुई तहजीब /संस्कृति पे।

मैं मानता हूँ कि ग्रामीण जीवन एक असल जीवन की शुरुआत देने वाला युग है जहाँ से रफ्ता-रफ्ता बेहतरीन और उतार-चढ़ाव युक्त जिंदगी का कारवां चल पड़ता है और इसी भावनाओं और मंजर को 'औघड़' के पन्नो में ढालना लेखक ने उचित समझा।

साहित्यिक क्लिष्टता,भाषायी सौन्दर्य व मनोरंजन से परे जाकर ऐसी कृति कृत करना नीलोत्पल मृणाल जी के संवेदनशील लेखन की और सशक्त इशारा करती है। पुनश्च बधाई और अग्रिम कृति के लिए ढ़ेरो शुभकामनाएं ।

तेरे बदन की लिखावट में है उतार चढ़ाव
मैं तुझको कैसे पढ़ूं, मुझे किताब तो दे

!! जिंदाबाद मृणाल !!

प्रकाशक : हिन्द युग्म
उपन्यास - औघड़
लेखक - नीलोत्पल मृणाल

समीक्षक - शौक़त अली खान

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2 Comments

  1. सटीक समीक्षा

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  2. "औगड़" उपन्यास एवम् आपके द्वारा लिखित समीक्षा दोनो ही लाजवाब 🖊️👌👌❤️

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